25 दिसंबर 1861 को त्रिवेणी (प्रयाग) के गोद में जन्में देश के महान विभूति महामना पंडित मदन मोहन मालवीय भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक ऐसे महान प्रणेता थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन देश के प्रति चिंतन और योगदानों के ऐतिहासिक तथ्यों से भरा पड़ा है । उनके इसी अतुलनीय योगदानों में हम उन्हें प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा के निषेध के सबसे बड़े प्रस्तावक के रूप में भी जानते है, जिसके लिए भारतीय इतिहास अथवा भारतीय श्रम इतिहास सदा के लिए आभारी है । प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा जिसे हम आम तौर पर गिरमिटिया-प्रथा के रूप में जानते है, यह एक ऐसी प्रथा थी जिसके अनुरूप सोची-समझी ब्रिटिश साजिस के तहत भोले-भाले भारतीयों को ब्रिटिश, फ्रेंच और डच उपनिवेशों में पांच से दस वर्ष के अनुबंध पर भेजा जाता था । ऐतिहासिक रूप से इस प्रथा को ब्रिटिश संसद द्वारा अपने उपनिवेशों से 1833 ई. में दास-प्रथा का उन्मूलन कर दिये जाने के उपरान्त एक अंतिम विकल्प रूप में 2 नवंबर, 1834 ई. को प्रारंभ किया था, जिसके तहत सर्वप्रथम मॉरीशस के बागानों में छोटानागपुर के 36 धांगरों (पहाड़ी कुलियों) को ‘एलटस’ नामक जहाज से भेजकर एक महान प्रयोग द्वारा पूर्ण किया गया | इस महान प्रयोग के बाद ही 1838 में डेमररा अथवा ब्रिटिश गयाना, 1854 में त्रिनिदाद-टोबैको और जमैका, 1856 में ग्रेनेडा, 1858 में सेंट ल्यूसिया, 1860 में नेटाल, सेंट विंसेट, सेंट किट्स, 1861 में रीयूनियन, 1873 में सूरीनाम, 1879 में फीजी तथा 1896 में पूर्वी अफ्रीका आदि देशों/द्वीपों में पन्द्रह लाख से अधिक भारतीयों को प्रतिज्ञाबद्ध कुली का रूप देकर भेजा गया, जिसमें महिला, पुरूषों के साथ-साथ बच्चें भी शामिल थे । कुल मिलाकर दास-प्रथा की समाप्ति के बाद उपरोक्त उपनिवेशों के बागानों में उपजे श्रम अभाव (शून्यता) को दूर करने के लिए तथा बागानों में लगे अधिक ब्रिटिश पूंजी के नुकसान से बचने के लिए ही इस नयी व्यवस्था और नये भारतीय मजदूरों को विकल्पिक रूप में चुना गया था | क्योंकि अफ़्रीकी मूल के दासों पर लगे प्रतिबन्ध से उपनिवेशी बागानों में निवेश की गई ब्रिटिश हुकूमत की पूंजीवादी स्थिति डावाडोल हो रही थी, जिससे निबटने के लिए ही उन्हें दास प्रथा के अनुरूप ही वैकल्पिक रूप में नयी व्यवस्था को जन्म देना पड़ा था। लेकिन मानवतावादियों के लगातार प्रहार से ब्रिटिश बागान प्रशासकों को कुछ संसोधित अधिनियमों को लागू करना पड़ा था, जो प्रतिज्ञाबद्ध कुलियों के लिए सिर्फ कागज़ी ही सिद्ध हुआ । प्रारंभ से ही इस प्रथा के हो रहे कड़े विरोध एवं सरकारी जाँच द्वारा मिले सुझावों को अनदेखा करते हुये यह प्रथा लगातार नौ दशकों तक तब तक जारी रहा, जब तक महात्मा गाँधी ने गोखले महोदय के प्रयास से द. अफीका में इस प्रथा को बंद करने के लिए गोरे बागान मालिकों के खिलाफ़ आवाज बुलंद न किया हो | बहरहाल, महामना अपने राजनीतिक युग में महात्मा गांधी और दिवंगत गोखले महोदय के छह-सात सालों के प्रयासों को भारतीय विधान कौंसिल, 1916 में एक बार फिर से पुनर्जीवित किया, और इसे पूर्ण रूप से प्रतिबंध करने पर जोर दिया, जिसके फलसवरूप अंग्रेजो द्वारा इस प्रतिज्ञाबद्ध कुली-प्रथा को 1917 में जड़ से निषेध करना पड़ा ।
डॉ. राजू कुमार (असिस्टेंट प्रोफेसर , इतिहास विभाग ,रामचंद्र चंद्र्वंशी विश्वविद्यालय )
डॉक्टर साहब का लाजवाब लेख है, मालवीय जी योगदानों की पूंजी है, देश आपका आभारी है और हमेशा रहेगा।।