मोहम्म (मोहर्रम) इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है और मुस्लिम समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण समय है। विशेष रूप से शिया मुसलमानों के लिए, मोहर्रम बहुत पवित्र महीना है और इसे इस्लाम के इतिहास की सबसे दुखद घटनाओं में से एक, कर्बला के शहीदों की याद में मनाया जाता है। यह एक शोक का महीना है, जो हज़रत इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
मोहर्रम का महत्व और इतिहास
मोहर्रम का महत्व इस्लाम के इतिहास में कर्बला की लड़ाई से जुड़ा हुआ है। इस्लाम के पैगंबर हज़रत मोहम्मद के नाती, हज़रत इमाम हुसैन, और उनके परिवार के सदस्यों ने यज़ीद की सेना के खिलाफ सत्य, न्याय, और इस्लामी सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। कर्बला की इस लड़ाई में इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयायियों की निर्मम हत्या कर दी गई थी।
- कर्बला की लड़ाई का कारण: मोहर्रम का महत्व कर्बला की लड़ाई से जुड़ा है, जो कि 680 ईस्वी में मौजूदा इराक के कर्बला मैदान में लड़ी गई थी। यह लड़ाई इस्लाम के चौथे खलीफा हज़रत अली के पुत्र इमाम हुसैन और उमय्यद वंश के यज़ीद के बीच हुई थी। यज़ीद एक अत्याचारी और अधर्मी शासक था जिसने इस्लाम की शिक्षाओं के खिलाफ काम किया। उसने इमाम हुसैन से अपनी सत्ता को वैधता देने के लिए समर्थन मांगा, लेकिन इमाम हुसैन ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया। उन्होंने कहा कि वे कभी भी एक अधर्मी शासक का समर्थन नहीं करेंगे और इस्लाम के मूल सिद्धांतों की रक्षा के लिए कर्बला की यात्रा की।
- कर्बला का संघर्ष और शहादत: कर्बला की भूमि पर, इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों को यज़ीद की सेना ने घेर लिया। पानी के स्रोतों को बंद कर दिया गया और उन्हें दस दिनों तक बिना भोजन और पानी के कष्ट सहना पड़ा। मुहर्रम के दसवें दिन, जिसे ‘यौम-ए-आशुरा’ कहा जाता है, यज़ीद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों पर हमला किया। इस नृशंस हमले में, इमाम हुसैन के परिवार के सदस्य और उनके छोटे बच्चे सहित 72 लोग शहीद हो गए। अंत में, इमाम हुसैन को भी बड़ी बेरहमी से शहीद कर दिया गया। उनका बलिदान न्याय, सत्य और इस्लाम के मूल्यों के लिए एक प्रतीक बन गया।
- हुसैन का संदेश: हज़रत इमाम हुसैन की शहादत का संदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो आज भी लोगों को अन्याय, अधर्म और अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है। उन्होंने दिखाया कि सत्य और न्याय की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है, भले ही इसके लिए अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़े।
मोहर्रम के अनुष्ठान और प्रथाएँ
मोहर्रम का महीना विशेष रूप से शिया मुसलमानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे सभी मुस्लिम समुदायों द्वारा मनाया जाता है। मोहर्रम के दौरान विभिन्न अनुष्ठान और प्रथाएँ निभाई जाती हैं जो श्रद्धा और शोक की भावना को व्यक्त करती हैं।
- मजलिस और मातम: मोहर्रम के दौरान शिया मुस्लिम समुदाय ‘मजलिस’ या धार्मिक सभाओं का आयोजन करता है, जहाँ इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत की कहानियों को सुनाया जाता है। इन सभाओं में वक्ता कर्बला की घटना का वर्णन करते हैं और इमाम हुसैन के साहस, बलिदान, और इस्लाम के लिए उनके समर्पण की कहानियाँ बताते हैं। इसके बाद लोग ‘मातम’ करते हैं, जो कि इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों की शहादत का शोक प्रकट करने का एक तरीका है। मातम के दौरान लोग अपने सीने पर हाथ मारते हैं और कभी-कभी खुद को चोट भी पहुँचाते हैं ताकि वे हुसैन के दर्द और बलिदान को महसूस कर सकें।
- अज़ादारी: ‘अज़ादारी’ का अर्थ है शोक प्रकट करना। मोहर्रम के पहले दस दिनों के दौरान, विशेष रूप से यौम-ए-आशुरा के दिन, शिया मुसलमान काले कपड़े पहनते हैं और सार्वजनिक रूप से शोक सभाओं में भाग लेते हैं। वे इमाम हुसैन की याद में विशेष गीत गाते हैं, जिन्हें ‘नौहा’ कहा जाता है। ये गीत अत्यधिक भावुक होते हैं और उनमें हुसैन की शहादत की गाथा होती है। इस प्रक्रिया को ‘अज़ादारी’ कहा जाता है और यह पूरे मोहर्रम महीने में जारी रहती है।
- ताजिया और अलम: मोहर्रम के दौरान ‘ताजिया’ और ‘अलम’ भी निकाले जाते हैं। ताजिया, इमाम हुसैन की दरगाह का प्रतीकात्मक रूप होता है, जिसे शोक यात्रा के रूप में निकाला जाता है। लोग इसे इमाम हुसैन के सम्मान में सजाते हैं और शहरों में घुमाते हैं। ताजिया की परंपरा का पालन मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के शिया समुदायों में किया जाता है। ‘अलम’ झंडे होते हैं जो हुसैन के अनुयायियों के प्रतीक होते हैं और इनका जुलूस निकाला जाता है।
- शब-ए-आशुरा: शब-ए-आशुरा या यौम-ए-आशुरा मोहर्रम का दसवां दिन होता है, जो कर्बला की लड़ाई के दिन का प्रतीक है। इस दिन को अत्यधिक पवित्र और शोकपूर्ण माना जाता है। शिया मुसलमान इस दिन विशेष नमाज अदा करते हैं, कर्बला की घटना को याद करते हैं, और इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत का शोक मनाते हैं।
- जलसे और जुलूस: मोहर्रम के दौरान शिया मुसलमानों के लिए ‘जलसे’ और ‘जुलूस’ महत्वपूर्ण होते हैं। इन जुलूसों में लोग इमाम हुसैन के प्रति अपने सम्मान और श्रद्धा को प्रकट करते हैं। वे “या हुसैन” के नारे लगाते हैं और मातम करते हैं। ये जुलूस कई किलोमीटर तक चलते हैं और इसमें हजारों की संख्या में लोग भाग लेते हैं।
- रोज़ा (उपवास): कुछ मुस्लिम समुदाय, विशेषकर सुन्नी मुसलमान, मोहर्रम के महीने में उपवास भी रखते हैं। हालांकि, शिया मुसलमानों के लिए यह उपवास कर्बला के शहीदों के सम्मान में नहीं होता, बल्कि उनका उपवास ‘आशुरा’ के दिन के शोक को व्यक्त करने का एक तरीका होता है।
मोहर्रम का सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
मोहर्रम का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं है, बल्कि इसका सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्व है। यह पर्व हमें साहस, सत्य, न्याय, और सामाजिक समानता के मूल्य सिखाता है।
- समानता और भाईचारे का प्रतीक: मोहर्रम के दौरान, विभिन्न मुस्लिम समुदाय एक साथ आते हैं और एकजुटता प्रदर्शित करते हैं। मोहर्रम के जुलूस और मातम के दौरान, लोग अपने मतभेदों को भुलाकर एक-दूसरे के साथ खड़े होते हैं और यह संदेश देते हैं कि वे हुसैन के न्याय और सत्य के सिद्धांतों का समर्थन करते हैं।
- सामाजिक न्याय का संदेश: इमाम हुसैन का बलिदान और कर्बला की घटना सामाजिक न्याय और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक है। इमाम हुसैन ने अपने अनुयायियों के साथ मिलकर अन्याय और अत्याचार का विरोध किया, जो आज भी लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देता है।
- धार्मिक सहिष्णुता और समावेशिता: मोहर्रम के अनुष्ठानों में न केवल मुसलमान बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी शामिल होते हैं, जो धार्मिक सहिष्णुता और समावेशिता का प्रतीक है। कई हिंदू, सिख, और ईसाई भी मोहर्रम के जुलूस में भाग लेते हैं और हुसैन की शहादत का सम्मान करते हैं।
मोहर्रम के दौरान सुरक्षा और सावधानी
मोहर्रम के महीने में मातम और जुलूस के दौरान भारी भीड़ जमा होती है, इसलिए इसे शांति और सौहार्दपूर्ण तरीके से मनाना बहुत महत्वपूर्ण है। सुरक्षा और सावधानी के दृष्टिकोण से, विभिन्न समुदायों और प्रशासन को मिलकर काम करना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की अनहोनी से बचा जा सके।
- अमन और शांति बनाए रखना: मोहर्रम के दौरान शांति बनाए रखना आवश्यक है। प्रशासन और धार्मिक नेताओं को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी प्रकार की हिंसा या अशांति न हो।
- सुरक्षा के इंतजाम: मोहर्रम के जुलूस और जलसे के दौरान सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम होने चाहिए। पुलिस और स्वयंसेवकों को भीड़ को नियंत्रित करने और किसी भी अप्रिय स्थिति से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए।
- स्वास्थ्य और सफाई: मातम के दौरान होने वाले रक्तस्राव और अन्य स्वास्थ्य संबंधित मुद्दों के लिए विशेष चिकित्सा व्यवस्थाएँ होनी चाहिए। इसके साथ ही, जुलूस और जलसे के दौरान सफाई का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
निष्कर्ष
मोहर्रम का महीना मुसलमानों के लिए अत्यंत पवित्र और महत्व का है। यह न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है, बल्कि इसका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी अत्यधिक है। हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिवार के बलिदान का संदेश आज भी समाज को अन्याय, अत्याचार, और अधर्म के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है। मोहर्रम का महीना हमें याद दिलाता है कि सत्य और न्याय की राह पर चलने के लिए किसी भी प्रकार की कुर्बानी देने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
मोहर्रम का पर्व इस्लाम की सहिष्णुता, समर्पण, और साहस का प्रतीक है, और यह सभी धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं से परे एक सार्वभौमिक संदेश देता है।