ज्योतिराव गोविंदराव फुले (1827-1890) भारतीय समाज सुधारक, विचारक, समाजसेवी, और लेखक थे। उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के खानवाड़ी गांव में हुआ था। वे एक माली (बागवान) जाति से संबंधित थे, जो समाज के निचले तबके के रूप में मानी जाती थी। उन्हें भारतीय समाज में शिक्षा और सामाजिक सुधार के प्रति किए गए उनके महान योगदान के लिए याद किया जाता है। ज्योतिराव फुले ने शिक्षा, जातिवाद, और लैंगिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाई और अंधविश्वास और सामाजिक बुराइयों को खत्म करने की दिशा में काम किया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:
ज्योतिराव फुले का जन्म एक गरीब और पिछड़ी जाति में हुआ था, जिसके कारण उन्हें बचपन से ही जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। उनके परिवार का पेशा माली का था, और उनके पिता का नाम गोविंदराव फुले और माता का नाम चिमणाबाई था। फुले परिवार ने ब्राह्मणों के बागों की देखभाल का कार्य किया, लेकिन उनका दिल शिक्षा के प्रति झुका हुआ था।
ज्योतिराव ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मराठी में शुरू की, और आगे की शिक्षा पुणे के स्कॉटिश मिशन स्कूल में प्राप्त की। यहीं से उन्हें पश्चिमी विचारधारा और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का परिचय हुआ। उनकी शिक्षा के दौरान, उन्हें जातिगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने शिक्षा की शक्ति को समझा और महसूस किया कि शिक्षा समाज के निम्न वर्गों को उनके अधिकार दिलाने का सबसे सशक्त माध्यम हो सकती है।
सामाजिक और शैक्षिक सुधार:
ज्योतिराव फुले ने महसूस किया कि समाज में व्याप्त जातिवाद, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के कारण निम्न जातियों और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया था। इसी को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने 1848 में पुणे में एक स्कूल की स्थापना की, जो भारत का पहला बालिका विद्यालय माना जाता है। इस स्कूल में उन्होंने लड़कियों, खासकर दलित और पिछड़ी जातियों की लड़कियों को शिक्षा देने का बीड़ा उठाया। इस काम में उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षिका माना जाता है, और उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर महिला शिक्षा के लिए काम किया।
उस समय ब्राह्मणवादी समाज में महिलाओं की शिक्षा को लेकर विरोध था, लेकिन ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने इन चुनौतियों का डटकर सामना किया। उन्होंने लड़कियों और दलितों के लिए अलग-अलग स्कूल खोले और शिक्षा के माध्यम से उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। उनका मानना था कि शिक्षा ही समाज के पिछड़े वर्गों को समानता दिलाने का सबसे बड़ा साधन है।
सत्यशोधक समाज की स्थापना:
1873 में, ज्योतिराव फुले ने “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की। यह समाज सामाजिक और धार्मिक सुधारों के लिए काम करता था, जिसका मुख्य उद्देश्य जातिवाद, धर्मांधता और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ना था। सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणवादी पाखंड के खिलाफ आवाज उठाई और सामाजिक न्याय, समानता, और स्वतंत्रता की मांग की।
फुले ने इस संगठन के माध्यम से निम्न जातियों, दलितों, और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। सत्यशोधक समाज का नारा था “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” यानी सभी के हित और सभी के सुख के लिए कार्य करना। इस संगठन ने विवाह, सामाजिक समारोह, और अन्य धार्मिक कार्यों में ब्राह्मणों के हस्तक्षेप को समाप्त करने का प्रयास किया।
जातिवाद के खिलाफ संघर्ष:
ज्योतिराव फुले ने जातिवाद के खिलाफ अपना जीवन समर्पित किया। वे ब्राह्मणवादी विचारधारा के कट्टर आलोचक थे और उन्होंने वर्ण व्यवस्था को समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा माना। उन्होंने अपनी किताबों और लेखों के माध्यम से ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए धार्मिक और सामाजिक नियमों का खुलासा किया और निम्न जातियों को इनसे मुक्ति दिलाने का आह्वान किया।
फुले का मानना था कि ब्राह्मणों ने धर्म के नाम पर समाज के निम्न वर्गों को गुलामी में धकेल दिया है और उन्हें शिक्षा, संपत्ति, और सामाजिक अधिकारों से वंचित कर दिया है। उन्होंने अपनी पुस्तक “गुलामगिरी” (1873) में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की और जातिगत भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। “गुलामगिरी” में उन्होंने भारतीय समाज के शोषणकारी ढांचे का खुलासा किया और सामाजिक समानता की मांग की।
महिला सशक्तिकरण:
ज्योतिराव फुले ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए भी उल्लेखनीय कार्य किए। उस समय भारत में महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों की बात करना बहुत बड़ी चुनौती थी, लेकिन फुले ने महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया।
उन्होंने न केवल बालिकाओं के लिए स्कूल खोला, बल्कि विधवा पुनर्विवाह का भी समर्थन किया। उन्होंने उस समय प्रचलित बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध किया और महिलाओं को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया। उन्होंने महिलाओं को शिक्षा देने के महत्व को समझा और इसे अपने जीवन का मिशन बनाया। उनके विचारों के अनुसार, समाज की प्रगति तब तक संभव नहीं थी, जब तक महिलाएं शिक्षा और स्वतंत्रता से वंचित रहतीं।
धार्मिक सुधार:
ज्योतिराव फुले ने धार्मिक सुधारों के प्रति भी अपनी सोच को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया। उन्होंने हिंदू धर्म में व्याप्त अंधविश्वासों और धार्मिक कर्मकांडों का कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि धर्म का इस्तेमाल ब्राह्मणों द्वारा समाज के निम्न वर्गों और महिलाओं को गुलाम बनाए रखने के लिए किया जा रहा है।
फुले ने तर्कवाद और विज्ञान के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई और लोगों को धर्म के नाम पर हो रहे शोषण से मुक्त होने का आह्वान किया। उनका मानना था कि भगवान ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है, और जाति, धर्म, या लिंग के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने एक समतावादी और न्यायसंगत समाज की कल्पना की, जहां सभी को समान अधिकार और सम्मान मिले।
लेखन और साहित्यिक योगदान:
ज्योतिराव फुले एक महान लेखक भी थे। उन्होंने कई पुस्तकें और लेख लिखे, जिनमें से प्रमुख हैं:
- गुलामगिरी (1873): यह उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति है, जिसमें उन्होंने जाति आधारित शोषण और गुलामी के खिलाफ अपनी विचारधारा प्रस्तुत की। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को गुलामी के रूप में दिखाया है और इसे समाप्त करने का आह्वान किया।
- तृतीय रत्न: यह नाटक उन्होंने सामाजिक और धार्मिक शोषण के खिलाफ लिखा था, जिसमें उन्होंने अंधविश्वास और ब्राह्मणवाद का खंडन किया।
- किसान का कोड़ा: इस पुस्तक में फुले ने किसानों की समस्याओं और उनके शोषण पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने दिखाया कि कैसे जमींदार और साहूकार किसानों का शोषण करते हैं।
- शिवाजी का अभिषेक: यह नाटक शिवाजी के अभिषेक समारोह पर आधारित था, जिसमें फुले ने जाति व्यवस्था और ब्राह्मणों द्वारा किए गए शोषण की आलोचना की।
अंतिम वर्ष और विरासत:
ज्योतिराव फुले का निधन 28 नवंबर 1890 को पुणे में हुआ। उनके निधन के बाद भी उनके विचार और कार्य भारतीय समाज में प्रेरणा स्रोत बने रहे। उन्हें भारतीय समाज सुधार आंदोलन के अग्रदूतों में से एक माना जाता है, जिन्होंने समाज के दलित, पिछड़े और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
आज भी उनकी शिक्षाएं और विचार समाज में प्रेरणा का स्रोत हैं। भारत में कई संगठन और आंदोलन उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर भी फुले से प्रेरित थे और उन्होंने फुले के विचारों को सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में अपने कार्यों का आधार बनाया।
निष्कर्ष:
ज्योतिराव फुले एक महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने जीवन को सामाजिक समानता, न्याय और शिक्षा के लिए समर्पित किया। उन्होंने शिक्षा के माध्यम से समाज के निचले तबके को सशक्त बनाने का कार्य किया और जातिवाद, पितृसत्ता, और धार्मिक पाखंड के खिलाफ संघर्ष किया। उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर उन्होंने महिलाओं और दलितों की शिक्षा के लिए जो काम किया, वह आज भी प्रेरणादायक है।
उनका योगदान भारतीय समाज को जातिवाद और लैंगिक असमानता से मुक्त करने में अत्यंत महत्वपूर्ण था, और वे हमेशा एक सच्चे मानवतावादी और समाज सुधारक के रूप में याद किए जाएंगे।
Here are some notable quotes by ज्योतिराव गोविंदराव फुले, reflecting his thoughts on social reform, education, and equality:
मनुष्यत्व का विकास केवल शिक्षा के माध्यम से संभव है।
- This highlights Phule’s firm belief that education is the key to human development and liberation from social evils.
जब तक नीच जातियों को शिक्षा नहीं मिलती, तब तक उनका उद्धार असंभव है।
- He emphasized the transformative power of education for the upliftment of marginalized communities.
स्त्रियों को अधिकार मिलना चाहिए, ताकि समाज में समानता स्थापित हो सके।
- A strong advocate of women’s rights, Phule believed in gender equality as a foundation for a just society.
भगवान ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है, तो जाति और धर्म के आधार पर हम भेदभाव क्यों करते हैं?
- This reflects his opposition to caste discrimination and his belief in the inherent equality of all human beings.